मॉल और मेले

मेले से ली गई तस्वीर 

इन दिनों नोएडा और दिल्ली के बड़े-बड़े मॉल में घूमते-फिरते फैशनेबल और गर्वोन्नत स्त्री-पुरुषों की भीड़ देखकर अपने देशी मॉल अर्थात गांव-देहात के मेलों की याद आ रही है। वे मेले जहां ज़रूरत की सभी चीजें, श्रृंगार प्रसाधन, मनोरंजन और पेट पूजा की सामग्री एक ही जगह मिल जाती थी। दाम कम और मोल-भाव की पूरी गुंजाइश। हमारे लोकजीवन और संस्कृति के विविध रंगों और खुशबू से भरे गांव-देहात के इन मेलों की सरलता और जीवंतता विकास की तेज रफ्तार की भेंट चढ़ रही है। यह सही है कि मॉल संस्कृति और मार्केटिंग के नए और आसान तरीकों के ईजाद के बाद इनकी प्रासंगिकता अब पहले जैसी नहीं रह गई, मगर एक मामले में तो इनकी उपादेयता हमेशा ही बनी रहेगी। यदि कुछ देर के लिए आप मन से आभिजात्य की धूल झाड़कर अपनी जड़ों की ओर लौट चलना चाहते हैं तो कभी ऐसे मेलों के चक्कर लगा आईए ! जीवन भर की अर्जित छवि को ताक पर रखिए और मेले की किसी फुटपाथी दुकान की बेंच कर बैठकर मुढ़ी-पकौड़ी या गरमागरम जलेबियां खाईए ! कुल्हड़ की चाय पीजिए ! मेले से बीवी के लिए चोटी, रिबन, चूड़ियां, टिकुली-सिंदूर और बच्चों के लिए हवा मिठाई खरीद लीजिए ! कहीं बाईस्कोप दिख जाय तो दिल्ली के क़ुतुब मीनार और आगरे के ताजमहल की सैर पर निकल जाईए ! किसी थिएटर में नौटंकी-सौटंकी, नाच - गाने देखिए ! दिल के मरीज़ नहीं हैं तो झूले में थोड़ा ऊपर-नीचे हो लीजिए ! आस्तिक हैं तो मेले के मंदिर में प्रणाम कर प्रसाद ग्रहण कीजिए ! यह बिल्कुल मत सोचिए कि आपको यह सब कुछ करते देख कोई आपको गंवार कहकर निकल जाएगा। हम सब जन्म से गंवार ही होते हैं। मॉल संस्कृति की भद्रता हमारा ओढ़ा हुआ चरित्र है। मानसिक स्वास्थ्य के लिए इस आरोपित भद्रता से गाहे-बगाहे मुक्ति की दरकार होती है।इस भद्रता का नैसर्गिक प्रतिकार कर शाम को जब आप घर लौटेंगे तो तमाम मानसिक और भावनात्मक थकावट सिरे से गायब हो चुकी होगी। 


ये सीधे-सरल और आडंबरहीन मेले जीवन की समस्याओं और जटिलताओं से मुक्ति के आदिम और कारगर तरीके हैं। अपनी मिट्टी का असर। अपनी सांस्कृतिक जड़ों में प्रवेश का सुख। 

Comments

Popular posts from this blog

पेंटिंग से भूत निकलता है और डराता है